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कविता

जा दिन मन पंछी उड़ि जैहैं

सूरदास


जा दिन मन पंछी उड़ि जैहैं ।
ता दिन तेरे तन-तरुवर के सबै पात झरि जैहैं।
या देही कौ गरब न करियै, स्‍यार-काग-गिध खैहैं।
तीननि मैं तन कृमि, कै बिष्‍टा, कै ह्वै खाक उड़ैहैं।
कहँ वह नीर, कहाँ वह सोभा, कहँ रँग-रूप दिखैहैं।
जिन लोगनि सौं नेह करत है, तेई देखि घिनैहैं।
घर के कहत सबारे काढ़ौ, भूत होइ धरि खै‍हैं।
जिन पुत्रनिहिं बहुत प्रतिपाल्‍यौ, देवी-देव मनैहैं।
तेई लै खोपरी बाँस दै, सीस फोरि बिखरैहैं।
अजहूँ मूढ़ करौ सतसंगति, संतनि मैं कछु पैहैं।
नर-बपु धारि नाहिं जन हरि कौं, जम की मार सो खैहैं।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु बृथा सु जनम गँवैहैं।


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